1929 वर्ष के 9, 10 नवम्बर को नागपुर में डोके महाराज के मठ में संघचालकों तथा कार्यकर्ताओं की बैठक हुई। उसमें सबने खुले दिल से चर्चा करके देश की तत्कालीन परिस्थिति और लोगों की मनःस्थिति का विचार करते हुए अनुशासन की दृष्टि से संघटन का स्वरूप एकचालकानुवर्ती रखने का निश्चय किया।
बैठक के दूसरे दिन सायंकाल मोहिते संघस्थान पर नागपुर के सभी स्वयंसेवकों तथा बैठक के निमित्त आये हुए कार्यकर्ताओं का एकत्र कार्यक्रम हुआ। उस समय उस संघस्थान के पीछे आज भी उत्तम स्थिति में विद्यमान भव्य पत्थर के द्वार की ओर पीठ करके संघचालक तथा कार्यकर्ता खड़े थे और डॉक्टर जी संघ स्थान पर ध्वज के पास खड़े वह दृश्य देख रहे थे। इतने में बैठक में लिये गये निर्णय को प्रकट करने की इच्छा से श्री आप्पाजी जोशी ने सबको पूर्व से सूचना देकर जोरदार स्वर में आज्ञा दी ‘‘सरसंघचालक-प्रणाम-1, 2, 3 !’’ सभी समवेत स्वयंसेवकों ने सरसंघचालक डॉक्टर केशवराव हेडगेवार को प्रणाम किया। इसके उपरान्त एकचालकानुवर्तित्व की कल्पना को विशद करनेवाला श्री विश्वनाथराव केळकर का ओजस्वी भाषण हुआ।
परमपूजनीय डॉक्टरजी को यह बात पसन्द नहीं आयी। कार्यक्रम समाप्त होने पर उन्होंने कहा ‘‘आप्पाजी, आज आपने पहले से निश्चित न हुआ काम किया, वह मुझे पसन्द नहीं। कारण, मेरी अपेक्षा बड़े और आदरणीय अपने सहयोगियों सें मैं प्रणाम लूँ, यह ठीक नहीं।’’ इस पर आप्पाजी ने अपनी बात का समर्थन करते हुए कहा ‘‘कार्य की सुविधा के लिए आपको अप्रसन्न करनेवाली यह बात हम सब लोगों ने स्वयंस्फूर्ति से कही है।’’
इस समय यह निश्चित हो गया कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक चालक की आज्ञा से चलेगा। विधान के इस एकमुखी एवं एकतंत्रीय स्वरूप को देखकर संघ के बाहर के कुछ लोग उसकी तुलना मुसोलिनी के फासिस्ट दल से करने लगे। जिनको डॉक्टर हेडगेवार के सहवास में रहकर उनके उदात्त, सहिष्णु, संग्राहक एवं सेवामय जीवन की शीतल छाया का सौभाग्य मिला है उन्हें इस कल्पना की निराधरता एवं विकृतता बताने की आवश्यकता नहीं। डॉक्टरजी का अन्तःकरण इतना देशभक्तिपूर्ण, प्रामाणिक तथा निरहंकारी था कि किसी भी रचना के दोष उनके काम में टिक नहीं सकते थे। उनकी वृत्ति में लोकतंत्र का विचार विनिमय और एकतंत्र का अनुशासन, दोनों का पूरी तरह समावेश होता था। सरसंघचालक-पद के पीछे किसी कुटुम्ब के कर्ता की भूमिका ही व्यक्त होती है। इस भूमिका में सब प्रकार के कष्ट सहन करके भी परिवार के पालन-पोषण का दायित्व ही प्रमुख भाव है। विवेकपूर्वक पालन-पोषण के साथ ही सबको सुयोग्य मार्ग से चलाने के लिए कभी माँ की ममता से पीठ पर हाथ फेरकर समझदारी की चार बातें बताने का कौशल्य और उससे काम न चला तो कान पकड़कर धमकाने की पात्रता भी कर्ता के अन्दर होनी चाहिए। डॉक्टरजी के सम्बन्ध में आनेवाला प्रत्येक व्यक्ति यह स्वीकार करेगा कि इस प्रकार के सब कर्तव्यों का निर्वाह करने योग्य मनःस्थिति और कर्तव्य का सुयोग्य संयोग संघसंस्थापक डॉक्टर हेडगेवारजी के पास हुआ था।
कर्तव्य मानकर भरत के समान सब कार्य की धुरी वहन करने की मन की सिद्धता और उसके साथ नेतृत्व के रत्नजड़ित सिंहासन को अपना न मानकर उस पर हिन्दू-राष्ट्रपुरुष की पादुकाएँ स्थापित करने का वैराग्य और सेवाभाव डॉक्टरजी के रूप में मूर्तिमन्त हुआ था। इस प्रकार का कर्तव्यकठोर एवं कार्यैकशरण व्यक्तित्व इस बैठक में सरसंघचालक-पद पर आरूढ़ हुआ था। समय ने बताया है कि इस रचना में ही संघ के अनुशासनपूर्ण विकास का रहस्य छिपा हुआ है।
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