अण्णा सोहोनी 1929 के आस-पास संघ के प्रत्यक्ष कार्य से दूर हो गये। पर यहाँ दो बातों का उल्लेख आवश्यक है। सोहोनी संघकार्य से विरक्त होने के बाद भी डॉक्टरजी से अनुरक्त बने रहे। उनकी मित्रता में कभी अन्तर नहीं आया। वे एक-दूसरे के यहाँ जाते थे तथा मन खोलकर बातें करते थे। दूसरी बात कार्यकर्ताओं की दृष्टि से उल्लेखनीय है। सामान्यतः देखा जाता है कि संस्था में मतभेद हो गया तो उसमें से एक गुट फूटकर बाहर निकल जाता है और फिर मूल संस्था के साथ डटकर स्पर्धा ही नहीं तो उसका प्राणपण से विरोध करने लगता है। परन्तु सोहोनी ने इस वाममार्ग को कभी अंगीकार नहीं किया। उलटे बुढ़ापे में अर्धांग से पीड़ित होने पर भी डॉक्टरजी के विषय में उनके मन के उत्कट प्रेम का मैंने स्वयं अनुभव किया है। अपनी युवावस्था की एक पुरानी दैनिकी निकालकर उसमें आमने-सामने दो पन्नों पर अनुक्रम से डॉक्टरजी तथा सोहोनी, दोनों की लिखी हुई जन्म-कुण्डलियाँ उन्होंने दिखायीं। उस समय ‘‘यह देखो केशव की कुण्डली’’ पक्षाघात के कारण लड़खड़ाती जिह्वा से बोलते हुए डॉक्टरजी का स्मरण करके उनकी आँखे डबडबा गयीं।
विरोध होने के बाद भी विरोध करनेवालों के सम्बन्ध में डॉक्टरजी के मन में आत्मीयता तथा प्रेम की भावना में कोई कमी नहीं आती थी। वे इस वस्तुस्थिति की ओर आँखें नहीं मूँद सकते थे कि आखिर दाँत भी अपने ही हैं और होठ भी अपने। डॉक्टरजी विरोध को समझते थे। परन्तु वे यह भी जानते थे कि यह विरोध कुछ लोगों का है, सारे समाज का नहीं. अतः जैसे-को-तैसा की भाषा और वृत्ति उन्होंने कभी स्वीकार नहीं की। उनका पूर्ण विश्वास था कि आज का विरोधी कल का सहकारी होगा और आज की उसकी गालियाँ कल स्तुतिवन्दना में बदल जायेंगी। यह आत्मविश्वास ही डॉक्टरजी के संयम का आधार था।
मालवीयजी मोहिते-बाड़ा शाखा पर जिस समय आये उस समय यद्यपि बाड़े का कुछ भाग खेलने लायक और साफ-सुथरा था फिर भी उसके अतिरिक्त बगल में बाड़े के ध्वंसावशेष बिखरे हुए थे। मालवीयजी के ध्यान में आ गया कि ऐसी पुरानी टूटी-फूटी जगह पर संघ चलाना पड़ता है इसलिए संघ की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होगी। डॉक्टरजी की ओर मुड़कर वे बोले ‘‘लोग मुझे शाही भिखारी कहते हैं। आपकी सम्मति हो तो संघ के लिए मैं चार लोगों के पास से कुछ कोष इकट्ठा कर दूँगा।’’ इस पर डॉक्टरजी ने तुरन्त उत्तर दिया ‘‘पण्डितजी मुझे पैसे की बड़ी चिन्ता नहीं है, मुझे तो आप जैसों के आशीर्वाद की आवश्यकता है।’’ निस्सन्देह यह उत्तर पण्डितजी के लिए अनपेक्षित था क्योंकि दूसरी संस्थाओं में पैसे के लिए होने वाली खटपट का उन्हें अच्छी तरह से परिचय था। अतः डॉक्टरजी से प्रसन्न होकर बोले ‘‘अन्य स्थानों पर पहले पैसा और बाद में मनुष्य-बल की ओर ध्यान दिया जाता है, पर आपकी रीति न्यारी है। आपकी विशेषता का मैं जहाँ-जहाँ जाऊँगा उल्लेख किये बिना नहीं रहूँगा।’’
परमपूजनीय डॉक्टरजी का स्वभाव था कि यदि वे किसी स्वयंसेवक में कोई गुण देखते तो उसको प्रोत्साहन देते। इसी स्वभाव के अनुसार उन्होंने श्री सावळापूरकर को, जो उस समय विद्यार्थी थे, ‘भगवा ध्वज ही राष्ट्रीय ध्वज है’ इस विषय पर लेक लिखने को कहा। लेख लिख जाने के बाद उन्होंने उसे स्वयं देखा तथा कुछ अशुद्धियों को ठीक कर दिया और कुछ वाक्य निकाल दिये। ठीक हो जाने के बाद उसको ‘श्रद्धानन्द’ साप्ताहिक में प्रकाशनार्थ भेजा।
डॉक्टरजी का यह निश्चित मत था कि राष्ट्र के प्रश्न अकेले-दुकेले के पराक्रम से हल नहीं हो सकते। उसके लिए तो राष्ट्र में तरुणों का भारी संख्या में संघटन खड़ा करना पड़ेगा। परन्तु यदि कोई देशभक्त अपने मार्ग से न जाते हुए अन्य किसी मार्ग से चला तो उसे जितना हो सके उतनी सहायता करने की उनकी तैयारी सदैव रहती थी।
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