संघ में नियमित रूप से लाठी की शिक्षा दिनांक 28 मई 1926 से आरम्भ हुई। उसके लिए धीरे-धीरे नयी आज्ञाएँ बनाने की आवश्यकता हुई। श्री अण्णा सोहोनी ने यह काम बड़ी सफलता के साथ कर दिखाया। अंग्रेजी की आज्ञाएँ सामान्यतः प्रचलित होते हुए भी उन्हें स्वीकार न करते हुए आग्रहपूर्वक स्वभाषा में आज्ञाएँ बनायी गयीं। इनके बनाने में मराठी, हिन्दी तथा संस्कृत सभी भाषाओं का आधार लिया गया था। जिस समय घर और बाहर चारों ओर अंग्रेजी का ही बोलबाला था तथा उस भाषा का उपयोग करने में कुछ विशेष गौरव का अनुभव होता था उस समय स्वभाषाओं में आज्ञाएँ निर्माण करने का आग्रह एवं प्रयत्न कुछ लोगों को अतिरेकी लगा हो तो कोई आश्चर्य नहीं। डॉक्टरजी का स्वभाव व्यवहार की मर्यादाओं को लाघँकर कभी शेखचिल्ली के समान ‘अति’ या कल्पना-जगत् में विचरने का नहीं था। अतः शाखा के कार्यक्रम में ‘सावधान’, ‘दक्ष’, ‘आराम’ आदि आज्ञाओं का प्रयोग करते हुए भी सैनिक शिक्षण के लिए आपद्धर्म के नाते उन्हें अंग्रेजी आज्ञाओं का प्रयोग करने में भी कोई झिझक नहीं हुई। हवा देखकर नौका के पाल को उस दिशा में मोड़ने का कौशल्य उनके पास था, किन्तु गन्तव्य का निर्धारण हवा के रुख के आधार पर नहीं किया जा सकता यह भी वे भली-भाँति जानते थे।
इसी तरह घोष में पाश्चात्य स्वरक्रम को डॉक्टरजी ने स्वीकार किया।किन्तु एक बार उस विद्या को सीखकर उसका विकास कर उसे भारतीय स्वरूप देने का काम भी संघ की स्वाभिमानपूर्ण प्रवृत्ति में से हुआ है। संचलन के समय ठेका देने के लिए विभिन्न चालें अथवा रचनाएँ(Marches), प्रारम्भ में अंग्रेजी से ली गयी होंगी किन्तु अब भारतीय रागों के आधार पर उतनी ही आकर्षक रचनाएँ स्वयंसेवकों ने निर्माण कर ली है। आवश्यक हो तो संसार में किसी का भी आधार लेना चाहिए किन्तु उतना ही जितना कि बच्चा पैरों में चलने की शक्ति आने तक गाड़ी का सहारा लेता है। संघ ने अपने व्यवहार से यही मर्यादा प्रतिष्ठापित की है।
कांग्रेस-अधिवेशन से वापस आने पर डॉक्टरजी ने अपनी बही में वहाँ पर स्वयंसेवकों के अनुशासन तथा सम्पूर्ण व्यवस्था के विषय में अपना अभिमत लिखकर रखा था। उसमें वे लिखते हैं कि ‘‘...........इस बार कलकत्ता-कांग्रेस में स्वयंसेवकों की संख्या तीन हजार से ऊपर थी। स्वयंसेवक-विभाग पर पैसंठ हजार रुपया खर्च हुआ। परन्तु स्वयंसेवकों में जैसा चाहिए वैसा अनुशासन नहीं था। कांग्रेस के मण्डप में विशेष भीड़ न होते हुए भी वे ठीक काम नहीं कर सकते थे। अतः एक समय तो सभी स्वयंसेवकों को मण्डप से हटाना पड़ा।’’ डॉक्टरजी का यह निरीक्षण केवल इस दृष्टि से था कि अपने हाथ में लिए संघटन में ये दोष नहीं रहने चाहिए। केवल दूसरे के दोष दिखाकर व्यर्थ की प्रतिष्ठा और शान दिखाने का काम उन्होंने कभी भूलकर भी नहीं किया। उनकी दृष्टि तो चारों ओर निरीक्षण कर यही खोजती रहती थी कि समाज की प्रवृत्ति को योग्य आकार व प्रकार देने के लिए कौनसे संस्कार तथा विधि-निषेध का पालन आवश्यक है।
संघ में बाल और शिशुओं के प्रवेश की नीति से डॉक्टरजी के सहयोगी श्री अण्णा सोहोनी सहमत नहीं थे। उन्होंने यह भी आग्रह किया कि संघ के साथ-साथ एक अखाड़ा भी चलाया जाये। डॉक्टरजी का यह कहना था कि आज समाज में पहले ही से बहुत-से अखाड़े हैं अतः उनमें एक और बढ़ा देने के स्थान पर स्वयंसेवक पुराने चलनेवाले अखाड़ों में ही जायें, वहाँ के वातावरण को चैतन्ययुक्त बनायें तथा वहाँ नये-नये मित्र बनाकर संघ में नवीन तरुणों को प्रवेश करायें। इसके अतिरिक्त संघ का व्याप देश-भर में करना है। अतः उसके कार्यक्रमों में उन्हीं चीजों का अन्तर्भाव होना चाहिए जो सब स्थानों पर सहज खड़ी की जा सकें। अखाड़ा इस दृष्टि से उपयुक्त नहीं होगा।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें