खिलाफत तथा असहयोग-आन्दोलन के बाद की विफलता तथा गड़बड़ के काल में इस प्रकार के विशुद्ध स्वातंत्र्य की कल्पना का प्रचार करने की विशेष आवश्यकता थी। इसी हेतु को ध्यान में रखकर 1923 के मध्य में डॉ. हेडगेवार, श्री विश्वनाथराव केळकर, डॉ. खरे, श्री वासुदेव फडणीस, श्री गोपाळराव ओगले, श्री बळवन्तराव मण्डलेकर आदि व्यक्तियों ने नागपुर से ‘स्वातंत्र्य’ नाम का एक दैनिक पत्र निकालने का निश्चय किया तथा एक-दो महीना दौड़धूप करके सहकारी तत्त्व के आधार पर चलनेवाले ‘स्वातंत्र्य प्रकाशन मण्डल’ की स्थापना भी कर दी।
डॉक्टर हेडगेवार प्रकाशन मण्डल के प्रवर्तकों में से थे तथा प्रारम्भ से ही ‘स्वातंत्र्य’ के मार्ग में आनेवाली सभी बाधाओं को दूर करनें में वे प्रमुखता से भाग लेते थे। अतः उन्हें एक प्रकार से उनका संचालक कहना ठीक होगा। उन दिनों डॉक्टरजी भोजन के लिए घर आते थे तथा सभा-समारोहों के अतिरिक्त जो भी समय बचता था वह ‘स्वातंत्र्य’ कार्यालय में ही व्यतीत होता था। लेख कम पड़ गये तो वे स्वयं हाथ में कलम लेकर लिखते थे तथा सम्पादक द्वारा लिखे हुए लेखों को देखकर उनमें कम-अधिक करने का सुझाव भी देते थे। यह दैनिक जैसे-तैसे एक वर्ष चला।
‘स्वातंत्र्य’ दैनिक के प्रकाशन का बखेड़ा डॉक्टरजी ने तत्त्वज्ञान के प्रचार की उत्कट लालसा से ही मोल लिया था। डॉक्टरजी इस पत्र के सम्बन्ध में अनेक काम करते थे किन्तु उन्होंने वेतन के नाम पर एक पैसा भी नहीं लिया। वेतन लेकर भी लोग किस प्रकार कामचोरी करते हैं यह आज सब जानते हैं। परन्तु वेतन न लेकर जो भी काम आ पड़े उसे निरलस भाव से एवं सेवा का अहंकार न रखते हुए करने का डॉक्टरजी का स्वभाव था। वे स्वयं वहाँ जुटे रहते थे। किन्तु दूसरे ने काम में टालमटोल की तो कभी क्रोध नहीं करते थे।
1924 के अन्त में यह स्पष्ट हो गया था कि ‘स्वातंत्र्य’ दैनिक बहुत दिनों नहीं चल सकेगा। उस वर्ष को आय-व्यय का हिसाब लगाने पर 10794 रु. का घाटा निकला। अतः यही निश्चित हुआ कि इस मामले को समेटा जाये। उस समय कोई भी सम्पादक बनकर अपने सिर पर पत्र बन्द करने का अपयश लेने को तैयार नहीं था। सफलता का सिरोपाव लेने को तो सभी तैयार होते हैं परन्तु असफलता का हलाहल पीने की कोई तैयारी नहीं रखता। इस समय डॉक्टरजी आगे आये तथा उन्होंने सम्पादक बनकर पत्र की ‘इति श्री’ लिखी। ‘अपयश से सम्पादन’ का धैर्य उन्हें अपनी निष्काम एवं निःस्वार्थ सेवावृत्ति के कारण ही मिला था।
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