"हिन्दुस्थान इसमें रहनेवाले सब लोगों का राष्ट्र है " यह गलतफहमी उस समय हिन्दू नेताओं के मन में इतनी गहरी बैठी थी कि उन्हें हिन्दू संघटन का काम राष्ट्रीय लगना संभव ही नहीं था |
परस्पर विरोधी परंपरा, संस्कृति तथा भावना वाले लोगों की खींचतान कर बाँधी हुई गठरी राष्ट्र नहीं होती , बल्कि धर्म, संस्कृति ,देश,भाषा तथा इतिहास के साधर्म्य से " हम सब एक हैं " यह ज्ञान तथा "एक रहेंगे" इसका निश्चय होकर जो अपूर्व आत्मीयता तथा तन्मयता ह्रदय से उत्पन्न होती है वही राष्ट्र का अधिष्ठान है ,इस सत्य को डॉक्टरजी अच्छी तरह से जानते थे |
हिन्दुस्थान के हितों के साथ जिसके सारे हित-सम्बन्ध निगडित हैं, जो इस देश को भारतमाता कहकर अति पवित्र दृष्टि से देखता है तथा जिसका इस देश के बाहर कोई अन्य आधार नहीं है, ऐसा एक महान्, धर्म और संस्कृति से एक सूत्र में गुँथा हुआ हिन्दू समाज ही यहाँ का राष्ट्रीय समाज है। इस समाज को जागृत एवं सुसंगठित करना ही राष्ट्र का जागरण एवं संघटन है | यही राष्ट्रकार्य है। इस प्रकार का राष्ट्रीय संघटन दलीय राजनीति से पूर्णतः अलिप्त रहना चाहिए तथा किसी भी राजनीतिक दल के व्यक्ति को अपने मत रखते हुए भी इस संघटन में काम कर सकना चाहिए।
हिंदुत्व ही राष्ट्रीयता है |राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नाम अत्यंत विचारपूर्वक निश्चित किया गया था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में राष्ट्रीय शब्द इसलिए है क्योंकि हिन्दू का संगठन राष्ट्रीय ही हो सकता है |
उस समय हिन्दू नेताओं में से जो ‘‘हिन्दुत्व ही राष्ट्रीयत्व है’’ इस मत को माननेवाले थे वे शाब्दिक घोषणा से आगे कुछ नहीं कर सकते थे। भाषण और लेख तथा प्रस्ताव, यहीं तक उनकी दौड़ थी। ‘संघटन’ करना अर्थात् क्या करना यह उनकी समझ में नहीं आता था। उन्हें कोई मार्ग नहीं सूझता था, इसलिए वे ‘‘इस प्रकार का समाज हो’’ ऐसी कल्पनाएँ ही व्यक्त कर सकते थे। पैंतीस कोटि का समाज जिस ओर से जा रहा था उसके विरुद्ध प्रवाह में तैरने के समान हिन्दू-संघटन का कार्य था। किन्तु ऐसा पराक्रम करने के लिए जिस धैर्य, निष्ठा, कर्तृत्व तथा कौशल्य की आवश्यकता थी वह दुर्दैव से कुछ लोगो के पास नहीं था और जिनके पास इन गुणों का समवाय था भी, उनको भी संघटन के स्थिर, विधायक तथा चिरन्तन स्वरूप का दर्शन न होकर उसके स्थान पर मुसलमानों के द्वेष के कारण केवल एक प्रतिक्रियात्मक स्वरूप के संघटन की ही आवश्यकता समझ में आती थी।
ऐसी परिस्थिति में अनेक लोगों ने हिन्दू समाज पर वर्तमान तथा आगे आनेवाले संकटों की चेतावनी दी होगी। किन्तु टूटते हुए पहाड़ को रोकने का सामर्थ्य उत्पन्न करने का कार्य दुर्भाग्य से किसी ने नहीं किया। फलतः 1925 में हिन्दू-संघटन की व्यापक अनुभूति होने के बाद भी उसका प्रत्यक्ष उठता हुआ स्वरूप कहीं देखने को नहीं मिला। इतना ही नहीं बल्कि जब डॉक्टरजी ने कार्य प्रारम्भ किया तो उसे ‘साम्प्रदायिक’, ‘छोकड़ों का’, ‘त्रेतायुगीन’ आदि नाम देकर विभिन्न प्रकार से उसकी गति रोकने का दुर्भाग्यपूर्ण प्रयत्न भी ऐसे अनेक महापुरुषों द्वारा किया गया।
बुधवार, 30 जून 2010
नीलकंठ
खिलाफत तथा असहयोग-आन्दोलन के बाद की विफलता तथा गड़बड़ के काल में इस प्रकार के विशुद्ध स्वातंत्र्य की कल्पना का प्रचार करने की विशेष आवश्यकता थी। इसी हेतु को ध्यान में रखकर 1923 के मध्य में डॉ. हेडगेवार, श्री विश्वनाथराव केळकर, डॉ. खरे, श्री वासुदेव फडणीस, श्री गोपाळराव ओगले, श्री बळवन्तराव मण्डलेकर आदि व्यक्तियों ने नागपुर से ‘स्वातंत्र्य’ नाम का एक दैनिक पत्र निकालने का निश्चय किया तथा एक-दो महीना दौड़धूप करके सहकारी तत्त्व के आधार पर चलनेवाले ‘स्वातंत्र्य प्रकाशन मण्डल’ की स्थापना भी कर दी।
डॉक्टर हेडगेवार प्रकाशन मण्डल के प्रवर्तकों में से थे तथा प्रारम्भ से ही ‘स्वातंत्र्य’ के मार्ग में आनेवाली सभी बाधाओं को दूर करनें में वे प्रमुखता से भाग लेते थे। अतः उन्हें एक प्रकार से उनका संचालक कहना ठीक होगा। उन दिनों डॉक्टरजी भोजन के लिए घर आते थे तथा सभा-समारोहों के अतिरिक्त जो भी समय बचता था वह ‘स्वातंत्र्य’ कार्यालय में ही व्यतीत होता था। लेख कम पड़ गये तो वे स्वयं हाथ में कलम लेकर लिखते थे तथा सम्पादक द्वारा लिखे हुए लेखों को देखकर उनमें कम-अधिक करने का सुझाव भी देते थे। यह दैनिक जैसे-तैसे एक वर्ष चला।
‘स्वातंत्र्य’ दैनिक के प्रकाशन का बखेड़ा डॉक्टरजी ने तत्त्वज्ञान के प्रचार की उत्कट लालसा से ही मोल लिया था। डॉक्टरजी इस पत्र के सम्बन्ध में अनेक काम करते थे किन्तु उन्होंने वेतन के नाम पर एक पैसा भी नहीं लिया। वेतन लेकर भी लोग किस प्रकार कामचोरी करते हैं यह आज सब जानते हैं। परन्तु वेतन न लेकर जो भी काम आ पड़े उसे निरलस भाव से एवं सेवा का अहंकार न रखते हुए करने का डॉक्टरजी का स्वभाव था। वे स्वयं वहाँ जुटे रहते थे। किन्तु दूसरे ने काम में टालमटोल की तो कभी क्रोध नहीं करते थे।
1924 के अन्त में यह स्पष्ट हो गया था कि ‘स्वातंत्र्य’ दैनिक बहुत दिनों नहीं चल सकेगा। उस वर्ष को आय-व्यय का हिसाब लगाने पर 10794 रु. का घाटा निकला। अतः यही निश्चित हुआ कि इस मामले को समेटा जाये। उस समय कोई भी सम्पादक बनकर अपने सिर पर पत्र बन्द करने का अपयश लेने को तैयार नहीं था। सफलता का सिरोपाव लेने को तो सभी तैयार होते हैं परन्तु असफलता का हलाहल पीने की कोई तैयारी नहीं रखता। इस समय डॉक्टरजी आगे आये तथा उन्होंने सम्पादक बनकर पत्र की ‘इति श्री’ लिखी। ‘अपयश से सम्पादन’ का धैर्य उन्हें अपनी निष्काम एवं निःस्वार्थ सेवावृत्ति के कारण ही मिला था।
डॉक्टर हेडगेवार प्रकाशन मण्डल के प्रवर्तकों में से थे तथा प्रारम्भ से ही ‘स्वातंत्र्य’ के मार्ग में आनेवाली सभी बाधाओं को दूर करनें में वे प्रमुखता से भाग लेते थे। अतः उन्हें एक प्रकार से उनका संचालक कहना ठीक होगा। उन दिनों डॉक्टरजी भोजन के लिए घर आते थे तथा सभा-समारोहों के अतिरिक्त जो भी समय बचता था वह ‘स्वातंत्र्य’ कार्यालय में ही व्यतीत होता था। लेख कम पड़ गये तो वे स्वयं हाथ में कलम लेकर लिखते थे तथा सम्पादक द्वारा लिखे हुए लेखों को देखकर उनमें कम-अधिक करने का सुझाव भी देते थे। यह दैनिक जैसे-तैसे एक वर्ष चला।
‘स्वातंत्र्य’ दैनिक के प्रकाशन का बखेड़ा डॉक्टरजी ने तत्त्वज्ञान के प्रचार की उत्कट लालसा से ही मोल लिया था। डॉक्टरजी इस पत्र के सम्बन्ध में अनेक काम करते थे किन्तु उन्होंने वेतन के नाम पर एक पैसा भी नहीं लिया। वेतन लेकर भी लोग किस प्रकार कामचोरी करते हैं यह आज सब जानते हैं। परन्तु वेतन न लेकर जो भी काम आ पड़े उसे निरलस भाव से एवं सेवा का अहंकार न रखते हुए करने का डॉक्टरजी का स्वभाव था। वे स्वयं वहाँ जुटे रहते थे। किन्तु दूसरे ने काम में टालमटोल की तो कभी क्रोध नहीं करते थे।
1924 के अन्त में यह स्पष्ट हो गया था कि ‘स्वातंत्र्य’ दैनिक बहुत दिनों नहीं चल सकेगा। उस वर्ष को आय-व्यय का हिसाब लगाने पर 10794 रु. का घाटा निकला। अतः यही निश्चित हुआ कि इस मामले को समेटा जाये। उस समय कोई भी सम्पादक बनकर अपने सिर पर पत्र बन्द करने का अपयश लेने को तैयार नहीं था। सफलता का सिरोपाव लेने को तो सभी तैयार होते हैं परन्तु असफलता का हलाहल पीने की कोई तैयारी नहीं रखता। इस समय डॉक्टरजी आगे आये तथा उन्होंने सम्पादक बनकर पत्र की ‘इति श्री’ लिखी। ‘अपयश से सम्पादन’ का धैर्य उन्हें अपनी निष्काम एवं निःस्वार्थ सेवावृत्ति के कारण ही मिला था।
मंगलवार, 29 जून 2010
स्वयंसेवक की कल्पना
पण्डित नेहरू लिखते हैं कि"कुछ लोगों का विचार था कि स्वयंसेवक के पास ऊपर से आयी आज्ञा को मानने मात्र का अनुशासन चाहिए तथा अन्य किसी बात की जरूरत नहीं, यहाँ तक कि कदम मिलाकर चलना भी स्वयंसेवक के लिए वाछंनीय नहीं। कुछ के मन में यह भाव काम कर रहा था कि प्रशिक्षित एवं अनुशासनबद्ध कवायद करनेवाले स्वयंसेवकों की कल्पना कांग्रेस के अहिंसा के सिद्धान्त से विसंगत है।’’
‘स्वयंसेवक दल’ तथा अनुशासन-सम्बन्धी इस प्रकार की विकृत धारणाओं के बीच डॉक्टरजी के मन की कल्पनाएँ साकार करने को वहाँ सुविधा कैसे मिल सकती थी ? डॉक्टरजी केवल ‘फरमाँबरदार’ सेवक नहीं तैयार करना चाहते थे। उनकी तो इच्छा थी कि देशभक्ति से ओतप्रोत, शील से विभूषित, गुणोत्कर्ष से प्रभावी तथा निस्सीम सेवाभाव से स्वयंस्फूर्त अनुशासित जीवन व्यतीत करने की आकांक्षा लेकर चलनेवाले क्रियाशील एवं कर्तव्यशील तरुण लाखों की संख्या में खड़े किये जायें। इस रचना में कार्य की आवश्यकता के अनुसार कोई नेता तथा दूसरा अनुयायी हुआ तो भी उनके गुण, स्वभाव, कर्तव्य तथा अनुशासन में दोनों के बीच थोड़ा-सा भी अन्तर नहीं होना चाहिए।
केवल डॉक्टरजी बोलते रहें तथा तरुण स्वयंसेवक चुपचाप सुनकर ‘जो बताया वह करनेवाले तथा जो दिया वह खानेवाले’ दास की प्रवृत्ति से उनके अनुयायी कहलाकर व्यवहार करें, यह बात डॉक्टरजी को पसन्द नहीं थी। डॉक्टरजी का दृढ़ विश्वास था कि यदि स्वयंसेवकों के विचार को प्रेरणा दी तो वे विशुद्ध हिन्दू समाज की ओर, तथा उस संकल्प की पूर्ति के लिए अपना जीवन समर्पण करने की ओर स्वयं खिंचते चले जायेंगे। उनको यह कभी भी आशंका नहीं होती थी कि यदि स्वयंसेवकों को चारों ओर की परिस्थिति की कल्पना हुई तो हिन्दू राष्ट्र के प्रति उनका विश्वास डगमगा जायेगा। प्रत्युत उन्हें तो यही लगता थी कि देश की यथार्थ स्थिति का ज्ञान तरुण मन को हुआ तो उसे यह समझ में आ जायेगा कि संघटन के अतिरिक्त इस परिस्थिति को बदलने का कोई दूसरा रास्ता नहीं है, तथा उसमें से ही स्वयं प्रयत्न करने की प्रेरणा उत्पन्न होगी। डॉक्टरजी को इस प्रकार के विचारवान् तथा स्वयंस्फूर्तिवाले कार्यकर्ता निर्माण करने थे |
इसीलिए एक बार उन्होंने बैठक में प्रत्येक स्वयंसेवक को बताया कि वह एक कागज पर अपना ध्येय, संघ का ध्येय तथा वह संघ का चालक हो गया तो संघ की कार्यपद्धति और रचना कैसी रखेगा इन सबके सम्बन्ध में अपने विचार लिखे |दूसरों को विचार के लिए प्रवृत्त करने की यह डॉक्टरजी की योजना थी।
‘स्वयंसेवक दल’ तथा अनुशासन-सम्बन्धी इस प्रकार की विकृत धारणाओं के बीच डॉक्टरजी के मन की कल्पनाएँ साकार करने को वहाँ सुविधा कैसे मिल सकती थी ? डॉक्टरजी केवल ‘फरमाँबरदार’ सेवक नहीं तैयार करना चाहते थे। उनकी तो इच्छा थी कि देशभक्ति से ओतप्रोत, शील से विभूषित, गुणोत्कर्ष से प्रभावी तथा निस्सीम सेवाभाव से स्वयंस्फूर्त अनुशासित जीवन व्यतीत करने की आकांक्षा लेकर चलनेवाले क्रियाशील एवं कर्तव्यशील तरुण लाखों की संख्या में खड़े किये जायें। इस रचना में कार्य की आवश्यकता के अनुसार कोई नेता तथा दूसरा अनुयायी हुआ तो भी उनके गुण, स्वभाव, कर्तव्य तथा अनुशासन में दोनों के बीच थोड़ा-सा भी अन्तर नहीं होना चाहिए।
केवल डॉक्टरजी बोलते रहें तथा तरुण स्वयंसेवक चुपचाप सुनकर ‘जो बताया वह करनेवाले तथा जो दिया वह खानेवाले’ दास की प्रवृत्ति से उनके अनुयायी कहलाकर व्यवहार करें, यह बात डॉक्टरजी को पसन्द नहीं थी। डॉक्टरजी का दृढ़ विश्वास था कि यदि स्वयंसेवकों के विचार को प्रेरणा दी तो वे विशुद्ध हिन्दू समाज की ओर, तथा उस संकल्प की पूर्ति के लिए अपना जीवन समर्पण करने की ओर स्वयं खिंचते चले जायेंगे। उनको यह कभी भी आशंका नहीं होती थी कि यदि स्वयंसेवकों को चारों ओर की परिस्थिति की कल्पना हुई तो हिन्दू राष्ट्र के प्रति उनका विश्वास डगमगा जायेगा। प्रत्युत उन्हें तो यही लगता थी कि देश की यथार्थ स्थिति का ज्ञान तरुण मन को हुआ तो उसे यह समझ में आ जायेगा कि संघटन के अतिरिक्त इस परिस्थिति को बदलने का कोई दूसरा रास्ता नहीं है, तथा उसमें से ही स्वयं प्रयत्न करने की प्रेरणा उत्पन्न होगी। डॉक्टरजी को इस प्रकार के विचारवान् तथा स्वयंस्फूर्तिवाले कार्यकर्ता निर्माण करने थे |
इसीलिए एक बार उन्होंने बैठक में प्रत्येक स्वयंसेवक को बताया कि वह एक कागज पर अपना ध्येय, संघ का ध्येय तथा वह संघ का चालक हो गया तो संघ की कार्यपद्धति और रचना कैसी रखेगा इन सबके सम्बन्ध में अपने विचार लिखे |दूसरों को विचार के लिए प्रवृत्त करने की यह डॉक्टरजी की योजना थी।
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ (Atom)